हमारे देश में आज भी रोग हो जाने पर झाड़-फूंक का सहारा लिया जाता है। और ज्यादातर लोग इससे ठीक भी हो जाते है। यह वाकई रहस्यमई है।
पाठकों आज हम इस तरह की एक रहस्यमई चिकित्सा पद्धति का विश्लेषण करेंगे । पहली है हाथों के स्पर्श से बीमारियों को ठीक करना तथा दूसरी बायोफीडबैक सिस्टम।
आज इन दोनों पद्धतियों से करोड़ों लोगों के रोग दूर किए जा चुके हैं। यह दोनों पद्धतियां झाड़-फूंक से भी कहीं ज्यादा रहस्यमई हैं।
यदि इन्हें चिकित्सा पद्धतियों का भेद जाने दिया गया तब आयुर्विज्ञान अपने सातवें आसमान में होगा और चिकित्सा के क्षेत्र में एक अभूतपूर्व क्रांति देखने में आएगी।
1971 में न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में नर्सिंग की महिला प्रोफेसर डॉ डोलोरस क्रीगर ने पूर्वी देशों की यात्रा की और विभिन्न प्रकार के धर्मों का अध्ययन किया। और पाया कि हिंदू धर्म में जिसे "प्राण" कहां गया है वह मानव रक्त में उपस्थित हीमोग्लोबिन और लाल रक्त कणिकाओं से काफी ज्यादा समानता रखता है। हिंदू धर्म में बताया गया है कि प्राण मानव के लिए उतना ही जरूरी है जितना कि ऑक्सीजन का एक अणु।
उसी समय जुस्ता स्मिथ जो कि अमेरिका की बायोकेमिस्ट्स थी एंजाइमों पर स्पर्श से पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन कर रही थी। उन्हीं से प्रभावित होकर डॉक्टर क्रीगर ने हिमोग्लोबिन पर स्पर्श से पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन शुरू कर दिया।
उन्होंने अपनी साथी ऑस्कर स्टेबेनी के साथ मिलकर एक अति महत्वपूर्ण शोध कार्य शुरू किया। इसमें उन्होंने 10 बीमार तथा 9 स्वस्थ लोगों को लिया। शुरू में सभी बीमार व स्वस्थ लोगों को हीमोग्लोबिन स्तर चेक किया गया। इसके बाद 6 दिन तक सभी बीमार लोगों की दवाइयां बंद कर दी गई तथा स्वस्थ तथा बीमार लोगों का खान-पान एक जैसा कर दिया गया। इसके बाद सभी बीमार लोगों की स्पर्श चिकित्सा की गई 6 दिन के शोध के बाद परिणाम में पता चला कि बीमार व्यक्तियों में हीमोग्लोबिन के स्तर में उल्लेखनीय परिवर्तन आया है।
डॉक्टर क्रीगर ने अपनी 32 नर्सों की ग्रुप पर भी यह प्रयोग किया। जिसमें उन्होंने 16 नर्सों को अपनी मरीजों की देखभाल करते समय स्पर्श पद्धति को भी साथ में लिया गया तथा अन्य 16 नर्सों को कहा कि वे इस चिकित्सा पद्धति का उपयोग नहीं करेंगी। और शोध के बाद पाया गया कि जिन मरीजों पर स्पर्श पद्धति का उपयोग करके किया था उनमें हीमोग्लोबिन स्तर में अकल्पनीय परिवर्तन आया। और जिन पर यह प्रयोग नहीं किया जा रहा था उनकी हीमोग्लोबिन स्तर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इस तरह से यह चिकित्सा पद्धति आज एक रहस्यमई पद्धति बनी हुई है तथा इसका उपयोग करके आज कई लोगों की जान बचाई जा रही है।
दूसरी चिकित्सा पद्धति है बायोफीडबैक पद्धति इसमें रोगी को खुद पर नियंत्रण रखकर रोग को दूर करने के बारे में सिखाया जाता है।
इसमें रोगियों को अपने दिलों की धड़कन पर काबू पाना, रक्तचाप कंट्रोल करना, अपने शरीर का तापमान नियंत्रण करना इत्यादि चीजें सिखाई जाती हैं जो किसी भी प्रकार के रोग को दूर करने के लिए अति आवश्यक है।
इस पद्धति में रोगियों को एक अति संवेदनशील मानीटर से जोड़ दिया जाता है। फिर उसके बाद मानीटरों द्वारा उसे संकेत दिया जाता है कि वह अपने शरीर से जो करवाना चाहता है, अपने मन में उसकी कल्पना करें और अपने शरीर को आज्ञा दें जो वह उसे करवाना चाहता है इसके बाद अपने शरीर को ढीला छोड़ दें। उसके बाद मनीटर रोगियों को सूचना देते हैं कि उनके शरीर का तापमान कम हो रहा है, उसके दिल की धड़कन सामान्य हो रही है, उसका रक्तचाप नीचे गिर रहा इससे रोगी को और ज्यादा आत्मविश्वास मिलता है और वे अपने शरीर पर नियंत्रण के लिए और भी प्रयास करने लगते हैं।
इस चिकित्सा पद्धति से आज अमेरिका ने कई और लोगों को खत्म करने के काम चल रहे हैं। एमरोय विश्वविद्यालय मैं इस पद्धति से क्षतिग्रस्त पेशियों को पुनः जीवित करने संबंधी प्रयोग संपन्न हो चुके हैं। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में तो मनोवैज्ञानिक इंजील नेत्र रोगियों को उनके दिल पर काबू पाना भी सिखा दिया है। आज बायोफीडबैक चिकित्सा की मदद से कई लोगों को स्वस्थ किया जा चुका है। इस चिकित्सा पद्धति में और चीजें भी शामिल हैं जिनसे मुख्य हैं ध्यान लगाना तथा व्यायाम करना।
डॉक्टर ग्रीनस्पान कहते हैं:-
यह चिकित्सा पद्धतियां आज रहस्य बनी हुई है
दोस्तों कैसा लगा हमारा यह लेख एक बार कमेंट सेक्शन में जरूर बताएं और यह अद्भुत जानकारी अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करें।
पाठकों आज हम इस तरह की एक रहस्यमई चिकित्सा पद्धति का विश्लेषण करेंगे । पहली है हाथों के स्पर्श से बीमारियों को ठीक करना तथा दूसरी बायोफीडबैक सिस्टम।
आज इन दोनों पद्धतियों से करोड़ों लोगों के रोग दूर किए जा चुके हैं। यह दोनों पद्धतियां झाड़-फूंक से भी कहीं ज्यादा रहस्यमई हैं।
यदि इन्हें चिकित्सा पद्धतियों का भेद जाने दिया गया तब आयुर्विज्ञान अपने सातवें आसमान में होगा और चिकित्सा के क्षेत्र में एक अभूतपूर्व क्रांति देखने में आएगी।
1971 में न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में नर्सिंग की महिला प्रोफेसर डॉ डोलोरस क्रीगर ने पूर्वी देशों की यात्रा की और विभिन्न प्रकार के धर्मों का अध्ययन किया। और पाया कि हिंदू धर्म में जिसे "प्राण" कहां गया है वह मानव रक्त में उपस्थित हीमोग्लोबिन और लाल रक्त कणिकाओं से काफी ज्यादा समानता रखता है। हिंदू धर्म में बताया गया है कि प्राण मानव के लिए उतना ही जरूरी है जितना कि ऑक्सीजन का एक अणु।
उसी समय जुस्ता स्मिथ जो कि अमेरिका की बायोकेमिस्ट्स थी एंजाइमों पर स्पर्श से पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन कर रही थी। उन्हीं से प्रभावित होकर डॉक्टर क्रीगर ने हिमोग्लोबिन पर स्पर्श से पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन शुरू कर दिया।
उन्होंने अपनी साथी ऑस्कर स्टेबेनी के साथ मिलकर एक अति महत्वपूर्ण शोध कार्य शुरू किया। इसमें उन्होंने 10 बीमार तथा 9 स्वस्थ लोगों को लिया। शुरू में सभी बीमार व स्वस्थ लोगों को हीमोग्लोबिन स्तर चेक किया गया। इसके बाद 6 दिन तक सभी बीमार लोगों की दवाइयां बंद कर दी गई तथा स्वस्थ तथा बीमार लोगों का खान-पान एक जैसा कर दिया गया। इसके बाद सभी बीमार लोगों की स्पर्श चिकित्सा की गई 6 दिन के शोध के बाद परिणाम में पता चला कि बीमार व्यक्तियों में हीमोग्लोबिन के स्तर में उल्लेखनीय परिवर्तन आया है।
डॉक्टर क्रीगर ने अपनी 32 नर्सों की ग्रुप पर भी यह प्रयोग किया। जिसमें उन्होंने 16 नर्सों को अपनी मरीजों की देखभाल करते समय स्पर्श पद्धति को भी साथ में लिया गया तथा अन्य 16 नर्सों को कहा कि वे इस चिकित्सा पद्धति का उपयोग नहीं करेंगी। और शोध के बाद पाया गया कि जिन मरीजों पर स्पर्श पद्धति का उपयोग करके किया था उनमें हीमोग्लोबिन स्तर में अकल्पनीय परिवर्तन आया। और जिन पर यह प्रयोग नहीं किया जा रहा था उनकी हीमोग्लोबिन स्तर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इस तरह से यह चिकित्सा पद्धति आज एक रहस्यमई पद्धति बनी हुई है तथा इसका उपयोग करके आज कई लोगों की जान बचाई जा रही है।
दूसरी चिकित्सा पद्धति है बायोफीडबैक पद्धति इसमें रोगी को खुद पर नियंत्रण रखकर रोग को दूर करने के बारे में सिखाया जाता है।
इसमें रोगियों को अपने दिलों की धड़कन पर काबू पाना, रक्तचाप कंट्रोल करना, अपने शरीर का तापमान नियंत्रण करना इत्यादि चीजें सिखाई जाती हैं जो किसी भी प्रकार के रोग को दूर करने के लिए अति आवश्यक है।
इस पद्धति में रोगियों को एक अति संवेदनशील मानीटर से जोड़ दिया जाता है। फिर उसके बाद मानीटरों द्वारा उसे संकेत दिया जाता है कि वह अपने शरीर से जो करवाना चाहता है, अपने मन में उसकी कल्पना करें और अपने शरीर को आज्ञा दें जो वह उसे करवाना चाहता है इसके बाद अपने शरीर को ढीला छोड़ दें। उसके बाद मनीटर रोगियों को सूचना देते हैं कि उनके शरीर का तापमान कम हो रहा है, उसके दिल की धड़कन सामान्य हो रही है, उसका रक्तचाप नीचे गिर रहा इससे रोगी को और ज्यादा आत्मविश्वास मिलता है और वे अपने शरीर पर नियंत्रण के लिए और भी प्रयास करने लगते हैं।
इस चिकित्सा पद्धति से आज अमेरिका ने कई और लोगों को खत्म करने के काम चल रहे हैं। एमरोय विश्वविद्यालय मैं इस पद्धति से क्षतिग्रस्त पेशियों को पुनः जीवित करने संबंधी प्रयोग संपन्न हो चुके हैं। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में तो मनोवैज्ञानिक इंजील नेत्र रोगियों को उनके दिल पर काबू पाना भी सिखा दिया है। आज बायोफीडबैक चिकित्सा की मदद से कई लोगों को स्वस्थ किया जा चुका है। इस चिकित्सा पद्धति में और चीजें भी शामिल हैं जिनसे मुख्य हैं ध्यान लगाना तथा व्यायाम करना।
डॉक्टर ग्रीनस्पान कहते हैं:-
"इस चिकित्सा का उद्देश्य है रोगियों को स्वयं अपना स्वामी बनाना तथा अपने अंदर बैठे हुए डॉक्टर की मदद करना है"आज भी इन दोनों पद्धतियां के पीछे की व्याख्या वैज्ञानिकों द्वारा नहीं की जा सकी है वैज्ञानिक आज भी इसके बारे में कुछ कह नहीं पा रहे हैं।
यह चिकित्सा पद्धतियां आज रहस्य बनी हुई है
दोस्तों कैसा लगा हमारा यह लेख एक बार कमेंट सेक्शन में जरूर बताएं और यह अद्भुत जानकारी अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करें।
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